Two Line Shayari and Ghazal by Zakir Khan
ज़ाक़िर खान की शायरी और ग़ज़लें
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#1. Zakir Khan Shayari
Shayari By Zakir Khan
एकतरफा प्यार की खूबसूरती ये है,
कि आप हर दिन जीतते हो और हर दिन हारते हो...
Ek tarfa pyaar ki khoobsurti ye hai,
ki aap har din jeette ho aur har din haarte ho...
Shayari By Zakir Khan
बस इस तरह मेरे इश्क का इतिहास लिखा है...
तू दुनिया में चाहे जहाँ भी रहे,
अपनी डायरी में मैंने तुझे पास लिखा है...
Har ek copy ke peeche kuch khas likha hai,
bas is tarah tere mere ishq ka itihaas likha hai...
Tu duniya mai chaahe jahan bhi rahe,
apni diary mai mene tujhe paas likha hai...
Shayari By Zakir Khan
Shayari By Zakir Khan
सितारों के बीच से सूरज बनने के कुछ अपने ही नुक्सान हुआ करते हैं...
Koi hath se pakad kar dobara nahi baithta,
sitaro ke beech se sooraj ban ne ke
kuch apne hi nuksaan hua karte hai...
Shayari By Zakir Khan
Shayari By Zakir Khan
Shayari By Zakir Khan
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#2. Zakir Khan Ghazal
"घर नहीं जा पाए न इस बार भी?"
बस का इंतज़ार करते हुए,
मेट्रो में खड़े खड़े
रिक्शा में बैठे हुए
गहरे शुन्य में क्या देखते रहते हो?
गुम्म सा चेहरा लिए क्या सोचते हो?
क्या खोया और क्या पाया का हिसाब नहीं लगा पाए न इस बार भी?
घर नहीं जा पाए न इस बार भी?
भीड़ में अकेले रहते हो ,
घर पे जाकर भी बस खाते और सोते हो ,
घर अब मकान बन गया है तुम्हारा चाहे जैसे करीने से सजाये हो ,
लाख बातें हो बोलने को पर अब कोई सुनने वाला नहीं
कैलकुलेटर पर खर्चे जोड़ते-जोड़ते ,
नहीं लगा पाए ना ज़िन्दगी का हिसाब भी ?
घर नहीं जा पाए ना इस बार भी ?
नहीं रहे अब पहले जैसे त्योहार ,
ऐसा बोल-बोल के खुद को मनाते हो ,
दीवार पर देखते-देखते पता नहीं क्या सोचते-सोचते छुट्टियाँ काट जाते हो।
इंटेलेक्चुअल सा बन के ,
होली को बच्चों का बोल के खुद को समझाते हो।
ज्यादा हो गया तो नशे में खुद को डुबाते हो।
नशे में डूबते -डूबते अपने रिश्तों का हिसाब नहीं लगा पाये ना इस बार भी ?
घर नहीं जा पाए ना इस बार भी ?
Shayari By Zakir Khan
"मैं शून्य पे सवार हूँ"
मैं शून्य पे सवार हूँ
बेअदब सा मैं खुमार हूँ
अब मुश्किलों से क्या डरूं
मैं खुद कहर हज़ार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
उंच-नीच से परे
मजाल आँख में भरे
मैं लड़ रहा हूँ रात से
मशाल हाथ में लिए
न सूर्य मेरे साथ है
तो क्या नयी ये बात है
वो शाम होता ढल गया
वो रात से था डर गया
मैं जुगनुओं का यार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
भावनाएं मर चुकीं
संवेदनाएं खत्म हैं
अब दर्द से क्या डरूं
ज़िन्दगी ही ज़ख्म है
मैं बीच रह की मात हूँ
बेजान-स्याह रात हूँ
मैं काली का श्रृंगार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
हूँ राम का सा तेज मैं
लंकापति सा ज्ञान हूँ
किस की करूं आराधना
सब से जो मैं महान हूँ
ब्रह्माण्ड का मैं सार हूँ
मैं जल-प्रवाह निहार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
मैं शून्य पे सवार हूँ
Shayari By Zakir Khan
"मेरे कुछ सवाल हैं,जो सिर्फ क़यामत के रोज़ पूछूंगा तुमसे"
मेरे कुछ सवाल हैं
जो सिर्फ क़यामत के रोज़ पूछूंगा तुमसे
क्योंकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके
इस लायक नहीं हो तुम
मैं जानना चाहता हूँ…
क्या रकीब के साथ भी चलते हुए शाम को यूं हीे
बेख्याली में उसके साथ भी हाथ टकरा जाता है क्या तुम्हारा,
क्या अपनी छोटी ऊँगली से
उसका भी हाथ थाम लिया करती हो
क्या वैसे ही जैसा मेरा थामा करती थीं
क्या बता दीं बचपन की सारी कहानियां तुमने उसको
जैसे मुझको रात रात भर बैठ कर
सुनाई थी तुमने
क्या तुमने बताया उसको
कि तीस के आगे की हिंदी की गिनती आती नहीं तुमको
वो सारी तस्वीरें जो तुम्हारे पापा के साथ,
तुम्हारे बहन के साथ तुम्हारी थी,
जिनमे तुम बड़ी प्यारी लगीं,
क्या उसे भी दिखा दी तुमने
ये कुछ सवाल हैं
जो सिर्फ क़यामत के रोज़ पूछूंगा तुमसे
क्योंकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके
इस लायक नहीं हो तुम
कि मैं पूंछना चाहता हूँ कि क्या वो भी जब
घर छोड़ने आता है तुमको
तो सीढ़ियों पर आँखें मीच कर
क्या मेरी ही तरह उसके सामने भी माथा
आगे कर देती हो क्या तुम
वैसे ही, जैसे मेरे सामने किया करतीं थीं
सर्द रातों में, बंद कमरों में
क्या वो भी मेरी तरह तुम्हारी नंगी पीठ पर
अपनी उँगलियों से हर्फ़ दर हर्फ़ खुद का नाम गोदता है,
और क्या तुम भी अक्षर बा अक्षर पहचानने की कोशिश करती हो
जैसे मेरे साथ किया करती थीं
ये कुछ सवाल हैं
जो सिर्फ क़यामत के रोज़ पूछूंगा तुमसे
क्योंकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो
इस लायक नहीं हो तुम।
Shayari By Zakir Khan
"उसे अच्छा नहीं लगता"
ये खत है उस गुलदान के नाम
जिसका फूल कभी हमारा था
वो जो अब तुम उसके मुख्तार हो तो सून लो,
उसे अच्छा नही लगता,
मेरी जान के हक़दार हो तो सुन लो,
उसे अच्छा नहीं लगता
कि वो कभी जब ज़ुल्फ़ बिखेरे तो बिखरी ना समझना
अगर जो माथे पे आ जाए तो बेफिक्रि ना समझना
दरअसल उसे ऐसे ही पसंद है
उसकी खुली ज़ुल्फ़ों में उसकी आजादी बंद है
जानते हो… वो अगर हज़ार बार जुल्फें ना संवारे
तो उसका गुज़ारा नहीं होता
वैसे दिल बहुत साफ़ है उसका
इन हरकतों में कोई इशारा नहीं होता
खुदा के वास्ते उसे कभी टोक ना देना
उसकी आज़ादी से उसे कभी रोक ना देना
क्योकि अब मैं नहीं तुम उसके दिलदार हो
तो सुन लो
उसे अच्छा नहीं लगता।
Shayari By Zakir Khan
"मेरा सब बुरा भी कहना,पर अच्छा भी सब बताना"
मेरा सब बुरा भी केहना
पर अच्छा भी सब बताना ।
मैं जाऊँ दुनिया से तो सबको
मेरी दास्ताँ सुनना ।
ये भी बताना कि कैसे
समंदर जीतने से पहले
मैं ना जाने कितनी छोटी छोटी
नदियों से हज़ारों बार हारा
वो घर ,वो जमीन दिखाना
कोई मग़रूर भी कहेगा तो तुम
उसको शुरुआत मेरी बताना
बताना सफ़र की दुश्वारियां मेरे
ताकी कोई जो मेरी जैसी ज़मीन से आये
उसके लिए नदी की हार छोटी ही रहे
समंदर जीतने का ख्वाब
उसके दिल और दिमाग से न जाए
पर उनसे मेरी गलतियाँ भी मत छुपाना
कोई पूछे तो बता देना कि
मैं किस दर्जे का नकारा था
केह देना कि झूठा था मैं
बताना कि कैसे
जरूरत पर काम ना आ सका
इन्तेक़ाम सारे पुरे किए
पर ईश्क़ अधूरा रहना दिया
बता देना सबको कि
मैं मतलबी बड़ा था
हर बड़े मुक़ाम पे
तन्हाई में खडा था
मेरा सब बुरा भी केहना
पर अच्छा भी सब बताना
मैं जाऊँ दुनिया से तो सबको
मेरी दास्ताँ सुनाना ।।
Shayari By Zakir Khan
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